बुढ़ापा


सांस जाती रहती है,
हर पल के साथ|
नींद उड़ती रहती है,
हर रात के साथ|
दिल की धड़कनें कमजोर हो जाती है,
नब्ज भी थिरकने लगते हैं,
अंधेरी रात और भी लंबी हो जाती है,
हर पहर के साथ|
सुबह के इंतजार में,
नींद भी चलने लगती है|
किसी बची हुई सफर पर|

जिंदगी के अनुभव,
कभी कड़वे से लगते हैं,
और कभी मीठे से|
कभी-कभी हम,
सब कुछ कह जाना चाहते हैं|
और कभी-कभी,
एक निरंतर खामोशी|

किसी स्वप्न के आगोश में,
सांसे चलती है,
बातें चलती है,
राहें बनती है,
वो स्वप्न 
कभी धूमिल सा,
कभी डरावना,
कभी उमंगों सा,
कभी बिल्कुल सूना|

कभी बचपन स्वप्न बनकर चला आता है,
और कभी जवानी,
कभी मीठी यादें लिए हुए,
करुणा भरी कहानीं|
अब तो वो कैद हो गए हैं,
गुजरे हुए सपनों में,
न हाथ आते हैं, न पास|

यादें, यादें और बस यादें ही,
जिंदगी को कदम देती है,
जिंदगी में रंग भरती है,
बची हुई राहों में सुगंध भरती है,
उसी सुगंध के सहारे,
हम आगे बढ़ते हैं,
सफ़र करते हैं,
बची हुई राहों पर|

भूमहीन

लहलहाती खेती
अपार धान
जिसे देखकर फूला न समाता
वह किसान

प्रसन्नचित हो या कर्जवान
किसान तो ठहरा किसान
खाने को तो उगा ही लेता वह
पेट भर या आधा पेट
या फिर उससे कहीं बहुत ज्यादा
समृद्धि की राह पर

चुन लिए गए है
सारी फलियां
खेतों की
अब बच गए हैं
बस ठूठ ठूठ

उन ठूठों में भी
कुछ लोग जीवन ढूंढ रहे हैं
बिन रहे हैं फलियां
बिन रहें हैं बीज
जो पड़े हैं जमीं पर
सड़ने को तैयार 

पेट की भूख कमाने के लिए
अपना सर खपा रहें हैं
कड़ी धूप में, वे भूमहीन
जिसमें झुलसती हैं घासें
उबलता हैं पानी

क्या झुलसन, क्या तपन
क्या महत्व रह जाता हैं इन सबका
जब पेट की आग भड़कती हैं
जब अंदर की प्यास पनपती हैं

फिर बचती हैं मजबूरी
बनाने को सबसे दूरी
क्या धर्म, क्या मान सम्मान
क्या परंपरा, क्या अपमान
सब फीके पड़ जाते हैं
सब पीछे रह जाते हैं
बस भूख मिटाना ही
सब धर्मों का मर्म बन जाते हैं

पत्थर की दुनियां

चमकती इमारतों और आलीशान बंगलो
चमचमाती सड़कों और सजे हुए गमलों
ऊंचे-ऊंचे हाइवे और बड़े-बड़े आडिटोरियम
दमकते शहर और पथरीली गालियां

कितने प्रतीक हैं, विकास के
पूरे या अधूरे
या आधे से भी कम
या कुछ भी नहीं

अब रोशनी भी जहर बन गई हैं
अब प्रकृति भी कहर बन गई हैं
वीरान जंगल सूनसान है
और एक शहर में सब परेशान हैं

अब हवा भी मगर बन गई हैं
उसके जद में जाओगे तो मारे जाओगे
बच भी गए तो भी मारे जाओगे
धीरे धीरे और कभी न जान पाओगे

भाग रहा है शहर
दिन और रात, न भूख न प्यास
जिंदगी कितनी सजीव या निर्जीव
इसकी कोई न फिकर न बात

किसी प्यासे को यहां पानी नहीं
किसी भूखे के पेट की कहानी नहीं
किसी के दर्द का कोई हमदर्द नहीं
किसी रोगी की कोई राते सुहानी नहीं

सिर्फ चमकती इटों और कांचो की प्रगति
खोखली प्रगति हैं, बेरुखी प्रगति हैं
इंसानी संवेदनाओं की अवहेलना
इसकी न कोई सद्गति हैं, न सुमति है

दोनों साथ हो तो कोई अच्छी बात हो
किसी एक से ही न मुलाकात हो
नहीं तो हम तबाह होंगे, बेपनाह होंगे
हम भी उसी पत्थर की तरह होंगे।

मानव और प्रकृति

उस पार्क की घासें 
इस बार काटी नहीं गई थी
वें उग कर काफी बड़ी हो गई थी
न नई कपोलों सी छोटी
और न ही सूखी रूखी सी बूढ़ी
अपनी युवता को प्राप्त
अपने ओज को प्राप्त
एकदम हरी भरी
एकदम रंगीन
पर थोड़ी सी 
अव्यवस्थित और झुकी हुई
अपनी गुरूता और अग्रता से

मानसून वापसी को आया
संग में अपने साथ नम हवाओं को लाया
वो हवाएं उन घासों पर
कुछ ऐसे लहरा रहीं थी
जैसे उनकी पीठ थपथपा रही हो 
उनके उस विकास पर
कुछ ही को मिलती है
उस सुनहरे पार्क में
वें थोड़ा सा खुशी से झुक जाती
फिर कुछ गर्वता लिए उठ जाती
यह क्रम चल रहा था
हर पल अनेकों बार, लगातार

वहीं हवाएं जब पेड़ों को झकझोरती
कुछ तेजी से, कुछ मौजी से
वें पेड़ भी उन हवाओं के संग झूमने लगते
कुछ शराब के नशे में झूलते इंसानों जैसा
उन पेड़ों पर बैठें पंछी उड़ जाते
फिर किसी दूसरे पेड़ पर बैठने जाते

अब बादल भी सफ़ेद से हो गए हैं
रुई के कोमल फाहों जैसे
जिनमे रंच मात्र भी कालिमा नहीं
वापस जा रहे हैं, फिर आने को
बची हुई खुशियां फिर लाने को
जब वो बादल फिर काले हो जाएंगे
अगले साल फिर तबाही लायेंगे
लेकिन अगले साल आने वाली तबाही से 
कोई डरा नहीं है,
कोई मरा नहीं है, उस पीड़ा से 
जो अभी हुआ ही नहीं है

सारे इंसान अभी भी लगे हैं
जीवन को संवारने में
जीवन को निखारने में
लोग कड़ी धूप में, धूमिल रूप में
दौड़ रहे हैं, आंख मूंदकर
बिना रुके, बिना थके
अगले दिन के आराम के लिए
अगले साल के विश्राम के लिए

दिन चले गए, रातें चली गईं
स्वप्न चले गए, बातें चली गईं
फिर भी खत्म नहीं हो रहे हैं
ये रास्ते, जिंदगी के वास्ते
इन बादलों की तरह
इन हवाओं की तरह
ये आते ही जा रहे हैं
उड़े जा रहे हैं, इन चिडियों की तरह
झूमें जा रहे हैं, इन घासों की तरह
भागे जा रहे हैं, इन गाड़ियों की तरह
कुछ बैठे हैं, हम लोगों की तरह
हर पल, हर रोज, हर साल
और फिर सालों साल

शहर और जीवन

शहर 
एक रेस के मैदान सा
जहां दौड़ते रहना ही जीवन है
भागते रहना ही
लगे रहना ही

जब आप थक जाते हैं
तो आप उस भीड़ से निकल कर
आराम करने बैठ जाते हैं
फिर से दौड़ने के लिए
या उसे छोड़ देने के लिए
शायद हमेशा के लिए

पर शहर जीवन नहीं है
उस जिया जा सकता है
आराम से, धीमी सांसों के साथ भी
उस पिया जा सकता है
मीठे शर्बत सा, घूट- घूट
मिठास का आनंद लेते हुए
या गरम चाय सा
जलते हुए, फिर संभलते हुए

वो प्यार ही क्या

एक पल के लिए
जब किसी पर
दिल ठहर जाए
वो प्यार ही क्या

एक पल में फिर वो
किसी और के लिए 
मचल जाए
वो प्यार ही क्या

जिस प्यार को 
पाने के लिए
न कर सके थोड़ा इंतजार
वो प्यार ही क्या

जिस प्यार को
जीने के लिए
न करे खुद को बेकरार
वो प्यार ही क्या

जो तुम्हारे बिन बोले
न समझ सके
तुम्हारे निशब्द लफ्ज़ों को
वो प्यार ही क्या

जब तक न हो
दिल परेशान
एक पल के दीदार का
वो प्यार ही क्या

घायल दिल और
बेजुबान ओंठ
और तड़पती आंखे
जब तक न हो ऐसी बातें
वो प्यार ही क्या

घायल दिल और
बेजुबान ओंठ
और तड़पती आंखे
निशानी है 
उस प्यार की
जिसमें डूबकर
निकलना मुश्किल हो जाता है

                      🗒️🖋️🖋️🖋️शिवमणि"सफर"(विकास)

मैं और जिंदगी

गुम हो जाता है मन कभी
किसी अंधेरी दरख़्त में
जहां से निकलने का
न कोई रास्ता मिले

खो जाता है मन कभी
कुछ बेरहम दर्दो में
जो बस जीवन भर
दिल को घायल करते हैं

लग जाता है मन कभी
कुछ आसान से सवालों के
जवाब ढूंढने में, पर
वो कभी मिलते ही नहीं

राह पर राह बना रहे हैं हम
पर लक्ष्य ओझल हो रहे हैं
लगे हैं जिंदगी को संवारने
पर पल पल सब कुछ खो रहे हैं

ये जिंदगी क्या कहूं इसे मैं
निस्सार कहूं या कहूं बेदर्द
कह भी दू तो क्या हो जाएगा
जिंदगी जो है रहेगी तो वही ही

बदलू इसे मैं या खुद को
खुद बदला तो सब छूट गया
इसे बदला तो यह टूट गया
चाहें मैं रहूं या मेरी जिंदगी

तड़प उठती रही जिगर में
आग जलती रही सफर में
बस कुछ बाकी था तो वो था
मुझे आग का खिलाड़ी बनाना


                  🗒️🖋️🖋️🖋️  शिवमणि"सफ़र"(विकास)

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