मैं और जिंदगी

गुम हो जाता है मन कभी
किसी अंधेरी दरख़्त में
जहां से निकलने का
न कोई रास्ता मिले

खो जाता है मन कभी
कुछ बेरहम दर्दो में
जो बस जीवन भर
दिल को घायल करते हैं

लग जाता है मन कभी
कुछ आसान से सवालों के
जवाब ढूंढने में, पर
वो कभी मिलते ही नहीं

राह पर राह बना रहे हैं हम
पर लक्ष्य ओझल हो रहे हैं
लगे हैं जिंदगी को संवारने
पर पल पल सब कुछ खो रहे हैं

ये जिंदगी क्या कहूं इसे मैं
निस्सार कहूं या कहूं बेदर्द
कह भी दू तो क्या हो जाएगा
जिंदगी जो है रहेगी तो वही ही

बदलू इसे मैं या खुद को
खुद बदला तो सब छूट गया
इसे बदला तो यह टूट गया
चाहें मैं रहूं या मेरी जिंदगी

तड़प उठती रही जिगर में
आग जलती रही सफर में
बस कुछ बाकी था तो वो था
मुझे आग का खिलाड़ी बनाना


                  🗒️🖋️🖋️🖋️  शिवमणि"सफ़र"(विकास)

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