लहलहाती खेती
अपार धान
जिसे देखकर फूला न समाता
वह किसान
प्रसन्नचित हो या कर्जवान
किसान तो ठहरा किसान
खाने को तो उगा ही लेता वह
पेट भर या आधा पेट
या फिर उससे कहीं बहुत ज्यादा
समृद्धि की राह पर
चुन लिए गए है
सारी फलियां
खेतों की
अब बच गए हैं
बस ठूठ ठूठ
उन ठूठों में भी
कुछ लोग जीवन ढूंढ रहे हैं
बिन रहे हैं फलियां
बिन रहें हैं बीज
जो पड़े हैं जमीं पर
सड़ने को तैयार
पेट की भूख कमाने के लिए
अपना सर खपा रहें हैं
कड़ी धूप में, वे भूमहीन
जिसमें झुलसती हैं घासें
उबलता हैं पानी
क्या झुलसन, क्या तपन
क्या महत्व रह जाता हैं इन सबका
जब पेट की आग भड़कती हैं
जब अंदर की प्यास पनपती हैं
फिर बचती हैं मजबूरी
बनाने को सबसे दूरी
क्या धर्म, क्या मान सम्मान
क्या परंपरा, क्या अपमान
सब फीके पड़ जाते हैं
सब पीछे रह जाते हैं
बस भूख मिटाना ही
सब धर्मों का मर्म बन जाते हैं
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