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कबाड़ बिनने वाले

बेकार समझकर हम तुम
जिन वस्तुओं को फेक देते हैं
उन्ही से वस्तुओं वो लोग 
अपना जीवन चलाते हैं।

गंदगी समझकर हम जहां
पैर रखने से भी कतराते हैं
वहीं रहकर वो सभी लोग
अपना सारा जीवन बिताते हैं।

पोषण न रहे खाने में
शोषित रहे जमाने में
दो जून की रोटी कमाने में
फिरते रहते हैं वो मलखानें में।

पास आते देखकर उन्हें
हम दूर भाग तो जाते हैं
हमसे हुई दशा यह उनकी
फिर भी न हम पछताते हैं।

मैला कपड़ा, भद्दा सा रंग
सूखा सा मुख, झोली संग
गंदे हाथों से खाने का ढंग
यही है उनके जीवन का संगम।


                   🗒️🖋️🖋️🖋️शिवमणि"सफर"(विकास)

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