मानव और प्रकृति

उस पार्क की घासें 
इस बार काटी नहीं गई थी
वें उग कर काफी बड़ी हो गई थी
न नई कपोलों सी छोटी
और न ही सूखी रूखी सी बूढ़ी
अपनी युवता को प्राप्त
अपने ओज को प्राप्त
एकदम हरी भरी
एकदम रंगीन
पर थोड़ी सी 
अव्यवस्थित और झुकी हुई
अपनी गुरूता और अग्रता से

मानसून वापसी को आया
संग में अपने साथ नम हवाओं को लाया
वो हवाएं उन घासों पर
कुछ ऐसे लहरा रहीं थी
जैसे उनकी पीठ थपथपा रही हो 
उनके उस विकास पर
कुछ ही को मिलती है
उस सुनहरे पार्क में
वें थोड़ा सा खुशी से झुक जाती
फिर कुछ गर्वता लिए उठ जाती
यह क्रम चल रहा था
हर पल अनेकों बार, लगातार

वहीं हवाएं जब पेड़ों को झकझोरती
कुछ तेजी से, कुछ मौजी से
वें पेड़ भी उन हवाओं के संग झूमने लगते
कुछ शराब के नशे में झूलते इंसानों जैसा
उन पेड़ों पर बैठें पंछी उड़ जाते
फिर किसी दूसरे पेड़ पर बैठने जाते

अब बादल भी सफ़ेद से हो गए हैं
रुई के कोमल फाहों जैसे
जिनमे रंच मात्र भी कालिमा नहीं
वापस जा रहे हैं, फिर आने को
बची हुई खुशियां फिर लाने को
जब वो बादल फिर काले हो जाएंगे
अगले साल फिर तबाही लायेंगे
लेकिन अगले साल आने वाली तबाही से 
कोई डरा नहीं है,
कोई मरा नहीं है, उस पीड़ा से 
जो अभी हुआ ही नहीं है

सारे इंसान अभी भी लगे हैं
जीवन को संवारने में
जीवन को निखारने में
लोग कड़ी धूप में, धूमिल रूप में
दौड़ रहे हैं, आंख मूंदकर
बिना रुके, बिना थके
अगले दिन के आराम के लिए
अगले साल के विश्राम के लिए

दिन चले गए, रातें चली गईं
स्वप्न चले गए, बातें चली गईं
फिर भी खत्म नहीं हो रहे हैं
ये रास्ते, जिंदगी के वास्ते
इन बादलों की तरह
इन हवाओं की तरह
ये आते ही जा रहे हैं
उड़े जा रहे हैं, इन चिडियों की तरह
झूमें जा रहे हैं, इन घासों की तरह
भागे जा रहे हैं, इन गाड़ियों की तरह
कुछ बैठे हैं, हम लोगों की तरह
हर पल, हर रोज, हर साल
और फिर सालों साल

3 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" बुधवार 01 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

भावपूर्ण अभिव्यक्ति

Kamini Sinha said...

बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति...

New Posts

कीड़े

कीड़े धानो के खेतों में धानो को खाते हैं उनके जड़ों और तनों को चबाते ही जाते हैं फिर एक दिन मर जाते हैं उसी खेत में मिल जाते हैं उसी मिट्टी ...