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जीवन की पथरेखा




एक आत्मा को एक नयी काया में प्रवेश करते देखा,
उस काया को मृत्युलोक मेंं जन्म लेते देेखा,
जन्म लेकर उसे मानव जीवन चक्र मेंं बंधते देखा,
इस मृत्युलोक की मायाा रूपी जंजाल में फंसते देखा।

फंसकर इन्ही कुचक्रों में वह खुद को भूल गया,
अपने प्रमुख पुरुषार्थों को निर्मूल कर गया,
इस दृश्य को देखकर मेेेरी अंतरात्मा ने मुझसेे पूछा,
क्या यही है सभी जीवो की पथरेखा।

वह बाालक जिसकी किलकारीयों से घर गूंज रहा था,
उस बाालक को देखकर हर कोई झूम रहा था,
सारे घर में खुशियों की सौगात आई थी,
जो उस बालक के साथ आई थी।

महक उठा था घर का हर एक कोना,
वह बालक लग रहा था जैसे एक खिलौंना,
सब उसके आस-पास झूम रहे थे,
खुशियों का दामन चूम रहे थे।

उस बालक को घुटनों के बल चलते  देखा,
मुस्कुराकर, खिलखिलाकर हंसते देखा,
उसे क्या पता कौन अपना है कौन बेगाना,
उसने हमेशाा सबको सिर्फ अपना ही जाना,

स्वार्थ तो उसे यह समाज सिखा देता है ,
अपने पराए के बंधन में बांध कर रख देता है,
ये समाज के लोग ही उसेे बुरा बनाते है,
अपने स्वार्थ के लिए उस से कुकृत्य करवाते हैं।

उस बच्चे को बदलनेेे के लिए समाज को बदलना होगा,
उन्हें अपने नियमों-कानूनों को पुनः परखना होगा,
तब जााकर दुर्भावनाओं का खात्मा होगा,
सारी खुशियों का संसार में आगमन होगा।


                  🗒️🖋️🖋️🖋️  शिवमणि"सफ़र"(विकास)

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