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बचपना

वो बचपन के दिन,
वो बचपन की रातें,
अब तो हो गई हैं,
सब गुजरी हुई बातें।
रातों की चांदनी से
चमकता था आंगन,
दिन के उजाले में
चमकता था आंगन।
क्या वो दिन थे,
खाना खाते, गाना गाते,
मिलकर खूब धूम मचाते,
कभी हंसाते, कभी रुलाते।
न जिम्मेदारीयां थी, ना बंधन था,
सबके चंचल मन, खुला आंगन था।
डर था तो प्यार भी
जो हमारा खुशियों का संसार था।
कितने हंसी थे वो दिन,
कितनी हंसी थी वो रातें,
बस अब रह गई है,
वो सब चिकनी-चुपड़ी बातें।
जब याद आते हैं वो दिन,
हम भूल जाते हैं खुद को।
चले जाना चाहते हैं उस बचपन में,
जो था कभी हमारे दिल के आंगन में।
चंदा हमसे अठखेलियां करता,
रातों को  ठिठोलियां करता,
दिनकर हंसी धूप से हमारे
खुशियों की झोलियां भरता।
कब दिन बीता, कब रात बीती,
ना जाने कितनी बरसात बीती।
भूल गए हम बचपन को
गुजरी हुई रात की भांति।
ठंडी हवाओं के फुहारे,
सुबह-शाम के वो नजारे,
उड़ जाते हैं धूल के संग,
बन जाते हैं अतीत के अंग।
अब वो बीता जमाना हुआ,
बचपना हमसे बेगाना हुआ,
यादों के दर्पण में बिम्ब सा
गुजरा हुआ अफसाना हुआ।


                  🗒️🖋️🖋️🖋️  शिवमणि"सफ़र"(विकास)

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