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दीवार ढह गई

जो रोक रखी थी नदियों को
कल कल करते झरनों को
बाहें पसारे खड़े हैं लोग
नदियों का पानी भरने को।


कलियां महकेगीं बागों में 
सूरज भी चमकेगा उन पर
गलियों में उड़ते भैरव का
मन लौटेगा पुष्प परागों पर।

रात का चंचल चांद अपना होगा
दिल का अभिमान अपना होगा 
हवाओं का झंकार अपना होगा
दिशाओं का प्यार अपना होगा।

चाहे घास का तिनका हो 
या हो देवदार का वृक्ष
रोशनी पड़ेगी सूरज की 
सब पर समतीक्ष्ण।

सावन में बादल छाएंगे
बागों में कोयल गाएंगे
मधुर मधुर ध्वनियों फिर
प्रकृति के गीत सुनायेगें।

चिड़ियों की चाहट से 
आकाश में सूरज चमकेगा
मंद मंद किरणों में फल कर
मध्यकाल में वह दमकेगा।


                  🗒️🖋️🖋️🖋️  शिवमणि"सफ़र"(विकास)

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