आधुनिकता का मुख्य पर्याय संपूर्ण मानव समाज की प्रगतिवादी विचारधारा का समागम करके जातिवाद, धर्मंवाद व पुरुषवाद जैसे विचारधाराओं को एक बगल करके, मानव का वैचारिक, व्यवहारिक व सामाजिक रूप से विकास करना होता है। आधुनिकता का यही स्वरूप मानव के कल्याण के लिए सद्उपयोगी है। लेकिन शिक्षित समाज के बहुत से लोग ऐसे विकास पूर्ण धारणा को दरकिनार करते हुए जातिवादी, धर्मवादी व पुरुषवादी जैसे विचारधाराओं को प्रश्रय देते हैं। जैसे- बड़े तबके के लोगों का छोटी जातियों के घर भोजन न करना। उनको तुच्छता की दृष्टि से देखना। बहुत से उच्च जातियों का किसी स्वार्थ बस निम्न जातियों के यहां किसी समारोह में शामिल हो जाना, परन्तु उनके यहां अन्न ग्रहण ना करना। एक धर्मानुयायियों का दूसरे धर्मानुयायियों के प्रति घृणा भाव होना। स्त्रियों को घर के दहलीज न पार करने देना। यह सब ऐसे मूर्खतम विचारधाराओं का ही परिणाम है।
मानसिक रूप से उन्नत लोगों के द्वारा दबाव में आकर भले ही पुरुषवादी विचारधारी लोग अपने मन पर बहुत अंकुश लगाकर स्त्रियों को स्वतंत्रता देने के लिए वर्तमान समय में बाध्य हो रहे हैं, लेकिन वे चालाकी से उन्हें कई बंधनों में ही देते हैं। जैसे- कहीं जाने से पहले घर पर पूछ कर जाने की बाध्यता, उन्हें समय से घर आने की बाध्यता। कुछ लोग तो किसी स्त्री को घर के एक पुरुष के साथ बाहर जाने पर ही उसे बाहर जाने की स्वतंत्रता देते है। लेकिन कोई पुरुष कब आता-जाता है, कहां आता-जाता है, किसके साथ आता-जाता है, कितनी रात्रि को घर आता है। इस पर कोई ध्यान नहीं देता है। क्या यह वास्तविक रूप से उचित प्रतीत होता है। हां यह सच है कि भीड़ भरे स्थानों पर युवकों द्वारा उन पर लफ्जों के तीखे प्रहार किये जाते है। इसमें बहुत से प्रौढ़ व्यक्तियों का भी शामिल रहते है। अकेले में बहुत से अमानवीय कृत्य करने के प्रयास किए जाते हैं।
जिसके लिए उन स्त्रियों पर घर से निकलने की पाबंदी लगायी जाती हैं। ऐसा कुकृत्य करने वाले लोग कौन हैं। ये तो पुरुषवादी विचारधारा से ग्रसित लोग ही हैं। जिन्हें वह स्त्रियों को सिर्फ उपभोग की वस्तु समझते हैं। जो व्यक्ति पुरुषवादी विचारधारा से उन्मुक्त है, वह तो ऐसी घिनौनी हरकत करने का प्रयास भी नहीं करेगा। यह समस्या तो पुरुषवादी विचारधारा से ही उत्पन्न हुई है। अतः जब तक पुरुषवादी मानसिकता को पूर्ण रूप से समाप्त नहीं किया जायेगा। तब तक ऐसे कुकृत्य बहुत सारी पाबंदीओं के बाद भी होते रहेंगे। इस पुरुषवादी विचारधारा को समाप्त करने के बाद ही ऐसी अमानवीय घटनाएं समाप्त हो पाएंगी। आप कैद कर देख लीजिए उन्हें अपने घरों के चारदीवारी में, फिर देखिए आगे होता क्या है, पुरुषवादी विचारधारी लोग आपके घर में घुस आएंगे। क्योंकि वे तो स्त्रियों को तो सिर्फ उपभोग की वस्तु समझते हैं। उनको घर में कैद करना, इस समस्या का वास्तविक समाधान नहीं होगा। जब तक आप उन्हें शारीरिक, मानसिक व सामाजिक रूप से सक्षम नहीं बनाते। तब तक उनकी स्थिति में परिवर्तन नहीं आएगा। जब तक आप ने शोषितत करते रहोगे, उनके अधिकारों का हनन करते रहोगे, तब तक उनका मानसिक विकास कैसे होगा।
माना कि स्त्रियों को घर की दहलीज पार करने के बाद पुरुषवादी विचारधारा से कुछ लोगों के द्वारा कुछ ऐसे कार्य व्यवहार किए जाते हैं जिसके कारण कभी-कभी उनका भविष्य पूरी तरह अंधकार में नजर आता है। आप ही बताइए इसमें किसकी गलती है। उन स्त्रियों कि या आपकी। एक उदाहरण के तौर पर आप मान लीजिए कि दो खिलाड़ियों को मैदान में उतारा जाता है। कोई एक ऐसा खेल जिसमें दोनों खिलाड़ी माहिर है। खेल कोई भी है। लट्ठबाजी , निशानेबाजी, क्रिकेट, फुटबॉल, कुश्ती आदि कोई भी एक खेल है। जिसमें दोनों उस खेल के दांव पेच जानते हैं तो दोनों में से कोई एक ही खिलाड़ी की जीत होगी। जिसमें योग्यता ज्यादा होगी, वही जीतेगा। परंतु ऐसे दो खिलाड़ियों को मैदान में उतार दिया जाए जिसमें एक किसी खेल में माहिर हो तथा दूसरा उस खेल के बारे में बस जानता हो, कभी उसने उस खेला न हो, तो क्या होगा, सीधी सी बात है की वह दूसरा खिलाड़ी हार जाएगा। किसी भाग्य वश शायद वह जीत जाये। किसी स्त्री का घर के दहलीज पार करने पर पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों से दो चार बार टकराव तो जरूर होता है। अब आप तुलना कीजिए यहां पुरुष सभी प्रकार के खेलों में माहिर है तथा स्त्री जो कि पहली बार ऐसी चीजों से वाकिफ हो रही है तो निश्चित रूप से हार स्त्री की होगी। क्योंकि वे लोग मानसिक प्रताड़ना और शारीरिक प्रताड़ना देने जैसे खेलों में माहिर है। जो स्त्रियां भी इन सब चीजों से वाकिफ है। किसी से प्रतिउत्तर देना सीखीं है। उनको हराना जानती है। वह किस प्रकार से सुधरेंगे, किस प्रकार से मानेंगे,तो वह उनको जवाब देकर, उन्हें मात देकर,वह अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ जाती है।
अधिकतर टकराव की स्थिति तब आती है। जब पुरुषवादी विचारधारा से ग्रसित लोग उस समाज में होते है। अगर पुरुषवादी विचारधारा को ही खत्म कर दिया जाए तो यह समस्या स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। तो इसके लिए स्त्री पुरुषों दोनों को समान रूप से शिक्षा दीजिए, उनको समान अधिकार दीजिए। उन्हें अच्छें संस्कार दीजिए। दोनों को शारीरिक रूप से सक्षम बनाइए। यहां एक बात जरूर है वह है स्त्री-पुरुषों के कार्य व्यवहार में तो भिन्नता, परन्तु उनके अधिकारों में भिन्नता लाना, किसी बड़ी मूर्खता से कम नहीं है।
सऊदी अरब जैसे राजतांत्रिक देशों में तो पुरुषवादी विचारधारा का पालन-पोषण तो खुलकर किया जाता है। वहां कि स्त्रियों क्या करना है या क्या नहीं इन नियमों को वहां के पुरुष तथा धर्मानुयायी बनाते हैं। पुरुषवादी सोच रखने वाले लोग तो स्त्रियों के मानसिक विकास पर भी पाबंदी लगाने का प्रयास करते हैं। यह सिर्फ एक ही देश की बात नहीं है अधिकतर देशों में ऐसी अमानवीय घटनाएं घटती रहती हैं। एक ही उदाहरण से आप यह अंदाजा लगा सकते हैं कि समस्त विश्व में स्त्रियों के साथ कितनी जात्तियां होती होंगी। सऊदी अरब के राजकुमार ने एक बार वहां की स्त्रियों को कार चलाने की स्वतंत्रता दी। जिसे पुरुषवादी विचारधारा पर एक और करारा प्रहार समझा जा रहा था। लेकिन वह तो वहां की स्त्रियों के लिए पुरुषवादी विचार रखने वालों का विश्वासघाती वादा निकला। वहां के राजकुमार ने कुछ ही समय बाद उस वादे को तोड़ दिया। स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनने से एक कुटिल प्रयास द्वारा दूर कर न दिया गया।साथ ही साथ वहां की स्त्रियों का सामाजिक स्वतंत्रता रूपी एक सीढ़ी को भी तोड़ दिया।
वैश्विक दबाव के कारण बड़े ही बेमन से वहां की शासन व्यवस्था ने 2015 में वहां की स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार दिया। सऊदी अरब और उसके जैसे साधन संपन्न देश भी अगर ऐसी विचारधारा को अपने देश के सामाजिक विकास में प्रश्रय देंगे, तो भविष्य में वहां की स्त्रियों की क्या स्थिति होगी। अमरीका को देश की महिलाओं को वोटिंग अधिकार देने में 144 साल लग गए। ब्रिटेन को महिलाओं को वोट देने का अधिकार देने में लगभग एक सदी का समय लग गया। फ्रांस जैसे देश में भी कभी महिलाओं के पास वोटिंग का अधिकार नहीं था। साल 1945 में वहां के स्त्रियों को मताधिकार की स्वतंत्रता मिली। स्विट्ज़रलैंड के कुछ इलाकों में महिलाओं को वोट दे सकने का अधिकार 1974 में जाकर मिला। भारत में महिलाओं के मताधिकार के लिए स्वयं को विकसित कहने वाले ब्रिटिश अधिकारियों ने ये तर्क तक दिया कि सार्वभौमिक मताधिकार भारत के लिए सही नहीं होगा। अब क्या सही नहीं होगा ये तो वो अंग्रेजी बता सकते थे।शुरुआत में महात्मा गांधी ने वोटिंग का अधिकार पाने में महिलाओं का समर्थन नहीं किया। उनका कहना था कि औपनिवेशिक शासकों से लड़ने के लिए उन्हें पुरुषों की मदद करनी चाहिए। अन्ततः भारतीय महिलाओं को वोट देने का अधिकार उसी दिन मिला। जिस दिन इस देश स्वतंत्र हुआ था।
कुछ लोगों का कहना था कि महिलाओं को वोट देने का अधिकार देने से पति और बच्चों की उपेक्षा होगी। कुछ सज्जनों ने तो यहां तक तर्क दिया कि राजनीतिक काम करने से महिलाएं स्तनपान कराने में असमर्थ हो जाएंगी।ऐसी सोच रखने वाले देशों व धर्मों और वहां की स्त्रियों का मानसिक विकास किस तरह होगा होगी। उसका अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं। ऐसी विचारधारा रखने वाले लोग वर्तमान समाज को आधुनिकता के रास्ते भविष्य तक कैसे पहुंचापायेगें। आप लोग सोचिए अगर ऐसी विचारपंथी लोगों के हाथ में शासन की बागडोर रहेगी तो समस्त स्त्रियों का तथा उनके भविष्य का क्या होगा। ऐसे विचारधारा रखने वाले लोगों के हाथ में शासन की बागडोर देने से तो खतरा तो होगा ही, अपितु ऐसे विचारधारा रखने वाले सामाजिक लोगों से भी इन स्त्रिओं का भविष्य अंधकारमय हो जायेगा। पुरुषवादी विचारधारा को पूर्ण रूप से नष्ट करने का समय तो अतीत में सफर कर चुका है फिर भी हम उसे भविष्य में नष्ट करने की मात्र कोरी कल्पना कर रहे हैं। पुरुषवादी विचारधारा को समाप्त करने का समय तो कब का जा चुका है। इसीलिए हमें भविष्य का इंतजार ना करते हुए। वर्तमान में ही पूर्ण रूप से इसकी अंत्येष्टि कर देनी चाहिए। जो की भविष्य में स्त्रियों तथा उनके पीढ़ियों के साथ साथ पुरुषों के लिए भी अधिक लाभदायी रहेगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता है तो भविष्य में ऐसी पुरुषवादी विचारधारी लोग, उन स्त्रियों द्वारा उनकी प्रगति के तूफान में तिनके की भांति उड़ जाएंगे।
पर्दा प्रथा, बाल विवाह, बहु विवाह जैसे अंधविश्वासी परंपराओं पर कब का अंकुश लगाया जा चुका है। ये प्रथाएं समाज को विकसित अवस्था तक पहुंचने में बाधाएं उत्पन्न कर रही थी। बहुत प्रयासों से इनका काफी अंश तक खात्मा किया जा चुका है, पर अभी भी ये प्रथाएं किसी ना किसी रूप में कहीं-कहीं देखने को मिल जाती है। भारत में बहुत से लड़कियों की शादी वहां की कानून द्वारा निर्धारित समय से पहले ही कर दी जाती है। पश्चिमी देशों में लोग एक स्त्री से तालाक के बाद दूसरी शादी कर लेते हैं। अगर वह स्त्री भी उनके जीवन में खुशियां न ला सकी तो वह उससे भी तालाक लेकर अन्य से शादी कर लेते हैं। यहां पर यह तालाक एक दूसरे की इच्छा से होता है और इसको कानूनी जामा पहना दिया गया है। जो कि शायद बहुविवाह का एक दूसरा रूप है। इस्लामिक परंपराओं का वहन करने वाले लोगों में पर्दा प्रथा जैसी परंपरा वहां की स्त्रियों का बुर्का पहनाव के रूप में आज भी प्रचलित है। शायद यह पुरुषवादी सोच का ही नतीजा है। इस्लामी देशों में तो इस प्रथा के खिलाफ वहां के पुरुषों ने शायद ही आवाज उठाई हो।
सऊदी अरब जैसे विकासशील देशों में वहां की स्त्रियों द्वारा कई आंदोलन भी किये जा चुके हैं। परन्तु कट्टरपंथी धर्मवादी विचारधारा वाले देशों में इसके खिलाफ आवाज उठाने पर वहां के पुरुषवादी विचार धाराओं से ग्रसित लोगों द्वारा उनके साथ कितना क्रुरतम व्यवहार किया जाता है। ये तो सिर्फ वहां की स्त्रियों को ही पता है। उन्होंने इस प्रथा को समाप्त करने के बहुत से प्रयास किये। पर पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित लोगों द्वारा उन स्त्रियों के अधिकारों का शोषण करते हुए उन पर अनेक पाबंदी लगा दी गयी। सऊदी अरब की कुछ स्त्रियों द्वारा बुर्का ना पहने के विरोध में सड़क पर उतर कर आंदोलन का प्रयास किया गया। परन्तु उनके इस प्रयास को भी नस्तनाबूत करके उन स्त्रियों को पच्चीस वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। इतनी अमानवीय कुकृत्य से स्त्रियों के भविष्य की स्थिति क्या होगी। ऐसी आधुनिकता किस काम की। जिससे वहां की स्त्रियों को सामाजिक स्वतंत्रता में ना भी न मिले। ऐसे विचारधारा रखने वाले लोग भी क्या बाहर निकलने पर अपना चेहरा ढकते हैं। शायद एक पल के लिए भी नहीं। जो लोग उन स्त्रियों के समान ही अपना चेहरा ढक कर बाहर निकलने का समर्थ हैं तो उन लोगों के लिए ऐसी परंपरा का समर्थन करना अनैतिक बात नहीं होगी। परंतु जो लोग ऐसी परंपराओं का समर्थन करते हैं और उन्हें स्वयं घर से बाहर मुंह ढक कर चलने में लज्जा आती हैं तो उन लोगों को ऐसी परंपराओं का समर्थन करने में शर्म आनी चाहिए।
जब तक समाज में जातिवादी, धर्मवादी व पुरुषवादी जैसी विचारधाराओं का भरण पोषण होता रहेगा। तब तक समाज का वास्तविक रूप से विकास नहीं हो सकता है। और न ही समाज वास्तविक आधुनिकता के पथ पर अग्रसर हो सकता है। ऐसे विकासपूर्ण बातें मात्र ताड़ के उस वृक्ष के समान होंगी जो लंबा तो बहुत है। बड़ा तो बहुत है। परन्तु उसकी छाया किसी को भी प्राप्त नहीं हो पाती है। ऐसी मान्यता एवं परंपराएं काष्ठ रूपी आधुनिकता की सज्जो-सामान मात्र है। जो आधुनिकता रूपी लकड़ी की मूर्ति को मनमोहक व सौन्दर्यशील बनाती हैं। बल्कि वह यह ध्यान नहीं दे रहे हैं कि जिस आधुनिकता रूपी लकड़ी के मूर्ति को वह सजाने का प्रयास कर रहे हैं वह तो अंदर से निर्जीव और निर्बुद्ध है।
///////शिवमणि "सफ़र" (विकास)///////
No comments:
Post a Comment