वह स्टेशन जो था
उनके घर की कमी को
एहसास नहीं होने देता था।
एक औरत मैले कपड़ों से युक्त
पसीने से भीगी, नहाने को तरसी
कंघी न बालों में,
चप्पल न पैरो में
ढूंढती किसी अपने को
भीड़ भरे गैरो में
शायद कोई मिल जाए
आज की भूख मिटाने वाला।
गोद में एक बच्चा और
बगल में टहलती एक,
एक बरष की छोटी बच्ची
पेट में जकड़न, मन में तडपन लिए
जब रो कर मां की तरफ निगाह फेरती हैं
ममता को दबाए हुए,करुणा को हटाए हुए
मन को ससक्त कर, हृदय को विशक्त कर
वह जोरों से उस बच्ची को
एक जोर का थप्पड़ तान देती है।
जब बच्ची फफक कर रोनें लगती है
कुछ दूर जाकर, फिर वापस आकर
मां के आंचल से लिपट जाती हैं
मां की ममता जब जाग जाती हैं
क्रोध से तब वह दूर भाग जाती हैं
पुचकार कर उस बच्ची को
आंसूओं की कश्ती को
अपने आंचल में समेट लेती हैं।
उस ममता में, वह मैला आंचल
स्वर्ण से भी ज्यादा कान्तिमय हो जाता है
हीरे से भी ज्यादा चमकदार हो जाता है
उस सुखकारी वस्त्र, की कीमत
भगवान भी नहीं दे सकता है।
🗒️🖋️🖋️🖋️ शिवमणि"सफ़र"(विकास)