एक मुसाफिर कि तरह,
आया मैं इस जमाने में,
अपने नन्हे नन्हे कदमों से।
पैरों से चला,
हाथों से मिला,
देखकर आंखों से दुनियां,
मेरा ये नाजुक सा दिल खिला।
पापा के गोद में चहका,
मां के आंचल में ढहका (रोया),
जब चला गया बचपना तो
दोस्तों संग मैं बहका।
बहकते बहकते जब कदम लड़खड़ाए,
तो मुझें सभालाने वो दोस्त साथ आए।
हाथ पकड़कर एक दूजे का,
चले हम फिर रफ्तार में,
ढूंढने कुछ खुशियों को चंद्राकर में।
जब आये चांद पर,
तो पता चला ये हमें,
यहां तो जीवन ही नहीं हैं,
तड़पकर मर जाना यहीं हैं।
ढूंढ रहे थे जब खुशियां चांद पर,
तो याद आने लगा वो बालपन,
पर अब क्या कर सकते थे,
किसी तरह दिन कटते थे।
अपने प्राणों से जब हम दूर हुए,
तो दूसरों के सांस हराने को आतुर हुए,
इसी छीन झपटी में बुलावा आया काल का,
तो फिर हमें याद आया वो बालपन।
जब आए थे हम किसी मुसाफिर कि तरह,
जब तक रहे हम रहे किसी मुसाफिर कि तरह
भटके तो भटके जीवनभर किसी मुसाफिर कि तरह,
अब जाना भी हैं किसी मुसाफिर कि तरह।
फिर भी एक आस लेके चले हम,
कि अगर आये अगले जनम हम,
फिर किसी मुसाफिर कि तरह,
तो न जाएंगे फिर हैं किसी मुसाफिर कि तरह।
🗒️🖋️🖋️🖋️ शिवमणि"सफ़र"(विकास)