पुरुष स्त्री पर शासन करना चाहता है,
स्त्री बस उसके समकक्ष आना चाहती है,
बस यही है अपराध उसका,
अपराध नही, घोर अपराध है।
जो उसने की कल्पना की,
समकक्ष आने के सपनें देखे,
क्योंकि स्त्री तो बस उपभोग्य है,
निर्बुध्दि है, निर्बल है, नि:सहाय है।
यही सोचकर पुरुष कहता है,
मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं हो,
मैं हूं तो तुम हो,
मैं हूं तो तुम्हारा जीवन है,
मैं हूं तो तुम्हारी सांसे हैं,
मैं हूं तो तुम्हारी आंखें है।
जो मैं ना रहा तुम्हारे साथ,
तो तुमने आगे बढ़ पाओगी,
इस कंकड़ी ले दुनिया में,
अपना पग न धर पाओगी।
हे! संसार की स्त्रीयों,
ये भ्रम है,
तुम पर राज करने का,
पुरुषों का ये धर्म है,
यही तो करते आए है अभी तक,
आगे भी यही करना चाहते है।
दया जो तुम्हारी शक्ति है,
ममता जो तुम्हारी भक्ति है,
त्याग जो तुम्हारी तपस्या है,
विश्वास जो तुम्हारी आस्था है,
कौन कहता है कि
तुम निर्बल हो, असहाय हो,
तुम तो दुनियां में सबसे बलवान हो,
तुम अपनी शक्तियों को पहचानों,
जो तुम्हारे अंदर छिपी हुई है।
बदल डालो, समाज की कुरितियों को
जो मानव समाज को खोखला कर रही है,
वहीं कुरितियां, कुत्सित भावनाएं,
असमर्थ समाज, धर्मान्धता व कुसंस्कार।
यही तो तुम्हें निर्बल बनाते है,
इनको जड़ से खत्म करो,
तुम्हारे अपमान के यही कारक है,
तुम्हारे वृद्धि के अवरोधक है।
स्त्री बस उसके समकक्ष आना चाहती है,
बस यही है अपराध उसका,
अपराध नही, घोर अपराध है।
जो उसने की कल्पना की,
समकक्ष आने के सपनें देखे,
क्योंकि स्त्री तो बस उपभोग्य है,
निर्बुध्दि है, निर्बल है, नि:सहाय है।
यही सोचकर पुरुष कहता है,
मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं हो,
मैं हूं तो तुम हो,
मैं हूं तो तुम्हारा जीवन है,
मैं हूं तो तुम्हारी सांसे हैं,
मैं हूं तो तुम्हारी आंखें है।
जो मैं ना रहा तुम्हारे साथ,
तो तुमने आगे बढ़ पाओगी,
इस कंकड़ी ले दुनिया में,
अपना पग न धर पाओगी।
हे! संसार की स्त्रीयों,
ये भ्रम है,
तुम पर राज करने का,
पुरुषों का ये धर्म है,
यही तो करते आए है अभी तक,
आगे भी यही करना चाहते है।
दया जो तुम्हारी शक्ति है,
ममता जो तुम्हारी भक्ति है,
त्याग जो तुम्हारी तपस्या है,
विश्वास जो तुम्हारी आस्था है,
कौन कहता है कि
तुम निर्बल हो, असहाय हो,
तुम तो दुनियां में सबसे बलवान हो,
तुम अपनी शक्तियों को पहचानों,
जो तुम्हारे अंदर छिपी हुई है।
बदल डालो, समाज की कुरितियों को
जो मानव समाज को खोखला कर रही है,
वहीं कुरितियां, कुत्सित भावनाएं,
असमर्थ समाज, धर्मान्धता व कुसंस्कार।
यही तो तुम्हें निर्बल बनाते है,
इनको जड़ से खत्म करो,
तुम्हारे अपमान के यही कारक है,
तुम्हारे वृद्धि के अवरोधक है।
🗒️🖋️🖋️🖋️ शिवमणि"सफ़र"(विकास)