कट रही हैं मिट्टी
उस पेड़ के जड़ों से
रिस-रिस कर बारिश से|
उस पेड़ के जड़ों से
रिस-रिस कर बारिश से|
बन कर धूल
उड़ रही हैं
हवा के झोंकों से|
सूख रहीं हैं जड़ें
क्षण प्रतिक्षण
सूरज की धूप से|
रात की चाँदनी
कमजोर कर रही हैं उसे
अपनी शीतलता से|
लगें हैं कीड़े जड़ों में
आस-पास फैले
गंदगी के ढ़ेरों से|
कुछ पागल कुत्ते
कर रहें हैं पीछे
कचरों को, अपने पैरो से|
अगली ठंडी में आंव के लिए
अगली वर्षा में बचाव के लिए|
वह पेड़ हैं संस्कृति का, सभ्यता का
मनुष्य के मनुष्यत्व का
जीव के जीवत्व का
अगली गर्मी में छाँव के लिए|
🗒️🖋️🖋️🖋️ शिवमणि"सफ़र"(विकास)
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