विश्वविद्यालय के परिसर में
रंग बिरंगे कपड़ों में
गुजरने वाले छात्राओं को देखकर
वहीं काम करने वाले दो मजदूर
एक मां और पंद्रह बरस की उसकी बेटी
उन्हें निहार रहे थे
अपनी प्यासी आंखो से
अपने किस्मत को कोस रहे थे
मन के घने अंधेरे में।
और वहीं युवा
जिनके कंधो पर
समाज की जिम्मेदारियां हैं
उन जैसे गरीब, असहाय, अशिक्षित
मलिन शरीर वाले
मटमैले कपड़ों वाले
कोमल मन वाले, पर
एक नज़र डालने से भी कतराते हैं।
जो अपनी मेहनत और त्याग से
पसीने की एक एक बूंद से
भूखे पीट से, सूखे ओठ से
बदन के दर्द से, माघ के सर्द से
बच्चों की चीख से, मांगे हुए भीख से
टूटे सपनों से, रूठे अपनों से
दिन के अन्धकार से, तन के बुखार से
मन की हताशा से, फिर बंधकर एक आशा से
समाज को संबृद्ध बनाते हैं
और वही उन्नतशील समाज
क्यों उनको भूल जाते हैं।
🗒️🖋️🖋️🖋️शिवमणि"सफर"(विकास)
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