बढ़ रहा है किस ओर
न ही कोई डोर
और न ही कोई छोर
अनियंत्रित, अव्यवस्थित
जाने किधर भी चले जाते है
उसी को रास्ता बना जाते है
जो आए उनके पीछे
उनका भी न कोई बिंदु कोर
सब कुछ है तबाह कर देते हैं
लगी रहती है नया बनाने की होड़
कभी कर्तव्यों को दरकिनार करते हैं
कभी मन्तव्यों का सत्कार करते हैं
कभी राम का रट लगाते हैं
कभी ईश्वर से कोसों दूर
बांधकर कोई आशा
लेकर एक नई अभिलाषा
चल पड़ते हैं वे वीर हीन
करने एक नई शुरुआत
जीवन के हर एक पड़ाव
सहते घाव, करते बचाव
कुछ जीवन को गति दे पाते हैं
कुछ चोटों पर ही जीवन बिताते हैं
🗒️🖋️🖋️🖋️ शिवमणि"सफ़र"(विकास)
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