किसी अंधेरी दरख़्त में,
जहां से निकलने का
न कोई रास्ता मिले|
खो जाता है मन कभी
कुछ बेरहम दर्दो में,
जो बस जीवन भर
दिल को घायल करते है|
लग जाता है मन कभी
कुछ आसान से सवालों के,
जवाब ढूंढने में, पर
वो कभी मिलते ही नहीं|
राह पर राह बना रहे हैं हम
पर लक्ष्य ओझल हो रहे हैं,
लगे हैं जिंदगी को संवारने
पर पल पल सब कुछ खो रहे हैं|
ये जिंदगी क्या कहूं इसे मैं
निस्सार कहूं या कहूं बेदर्द,
कह भी दू तो क्या हो जाएगा
जिंदगी जो है रहेगी तो वही ही|
बदलू इसे मैं या खुद को
खुद बदला तो सब छूट गया,
इसे बदला तो यह टूट गया
चाहें मैं रहूं या मेरी जिंदग|
तड़प उठती रही जिगर में
आग जलती रही सफर में,
बस कुछ बाकी था तो वो था
मुझे आग का खिलाड़ी बनाना|
No comments:
Post a Comment