भाषा का प्रवाह

भाषा नदी की धार सी
निरन्तर बढ़ती चली जाती हैं
जब तक कोई सैलाब ना आ जाए
पर्वतों को उखाड़-उखाड़ कर
वनों को चीर-चीर कर
मैदानों को रेत सा बहाकर।

जब मानसून चला जाता है
पर्वत स्थिर होने लगते हैं
वन हरे-भरे से हो जाते हैं
और मैदानों को समतल करके
कागज पर स्याही सी बहती हैं।

मार्ग में आए जब कोई बाधा
एक नया मोड़ लेती वह व्याधा
फिर से बढ़ चलती हैं
नये गगन में, नये चमन में
नयी रूप सी, नये बसन्त में
नयी कली सी, नये वतन में
नयी चमक सी, नये जनम में।


                     🗒️🖋️🖋️🖋️शिवमणि"सफर"(विकास)

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